

दिन एक एक करके आते हैं। कब चले जाते हैं, पता नहीं चलता। हफ़्ता जाता हुआ दीखता है। हम चाहते हैं कि हफ़्ता जाए, एक नहीं चार, बिना किसी परेशानी के और पूरी रफ़्तार से जाएँ, ताकि तनख़्वाह जल्दी मिले। चार हफ़्तों का महीना गुज़र जाता है। तनख़्वाह खाते में आ जाती है। या यों कहिये कि तनख़्वाह आती है, महीना चला जाता है, और कुछ समय बाद वह भी चली जाती है। बच जाते हैं थोड़े से पैसे, जिन्हें छोटे आदमी की पीढ़ियाँ आगे चलकर बाँट लेती हैं।
हरी बाबू भी एक ऐसे ही छोटे आदमी हैं। वे आबकारी विभाग में कार्यरत हैं, पर शराब नहीं पीते। वे चित्रकार बनना चाहते थे, पर समय रहते उन्हें समझ आ गया कि चाहने और होने में बहुत फ़र्क़ होता है। यह आभास होते ही उन्होंने सरकारी नौकरियों के फॉर्म भरने शुरू कर दिए और सबसे पहला इम्तिहान दिया आबकारी विभाग का। उसमें चयन हो गया तो बस, तब से वहीँ हैं। वही आठ बजे निकलना और छह बजे घुसना।
वे इतवार की दोपहर जीवन के सही ग़लत फैसलों का आकलन कर सो जाते और शाम को खोई गैया की तरह कुलबुलाते हुए किसी भी परिचित से मिलने चले जाते या फ़ोन पर बातें कर लेते, जिसके तुरंत बाद वे ग्लानि से भर जाते। कैसी ग्लानि, वे नहीं समझ पाते। कभी किसी से लड़े नहीं, कभी किसी को मारा नहीं। जो मिल गया, वह ले लिया। न कोई आशा, न कोई सपने। न कोई ज़िद और न ही किसी बात का विरोध। छोटा आदमी और उसकी छोटी सी दुनिया।
मदन भी ऐसा ही छोटा आदमी है, पर वह किसी की नौकरी नहीं करता। सुबह पाँच बजे उठता है, आलू छीलता है, दाल उबालता है, आटा गूँथता है, और सात बजे नए बस स्टैंड पर कचौड़ी की ढकेल लगाता है; पिछले बारह सालों से। उसे याद है जब वह बल्लभगढ़ से यहाँ आया था, वह और उसकी पत्नी जनरल डिब्बे के फर्श पर भिंच के बैठे थे। ऊपर की बर्थ से कोई मूँगफली का छिलका या गुटखे का खोखा ज़मीन पर फेंकता तो थोड़ा और सिकुड़ जाते, जैसे अपने बीच कचरा फेंकने की जगह दे रहे हों। जब उनकी पैसेंजर गाड़ी आउटर पर ढाई घंटे रुकी रही, मदन की पत्नी ने पूछा,
"पता है अमीर आदमी अमीर क्यों होता है?"
"क्यों?"
"क्योंकि अमीर के लिए बल्लभगढ़ के बाद मथुरा आता है। गरीब के लिए बल्लभगढ़ से असावती, पलवल, होडल, कोसीकलां, छाता और फिर जाके मथुरा।"
उसकी पत्नी मथुरा आने के दो साल बाद मर गई। मोहल्ले वाले बताते थे मदन पहले खूब शराब पीता था। उधारी में जीता था और अगर समय पर अक़्ल न आई होती तो उधारी में ही मर जाता। जब देनदारों को लगा यह बिना पैसे लौटाए मर सकता है, उससे शराब छोड़ने की कवायद करने लगे। उसने उन लोगों को छोड़ दिया। कुछ ही दिनों में वह दिवालिया हो गया। घर का सामान, पत्नी के छोटे-मोटे गहने, बर्तन सब बिक गए।
फिर वह बीमार पड़ गया। जैसे-तैसे बचा और तब से उसने शराब से तौबा कर ली। छः महीने बिस्तर पर पड़े रहने पर उसकी पीने की आदत तो छूट गई, पर ठीक होते ही उसे पैसों का नशा हो गया। नशा ऐसा कि अब उसे पैसे के बदले अपना जीवन, अपना निरा अस्तित्व बेचने में कोई आपत्ति नहीं थी। वह सुबह से शाम कचौड़ी बेचता था। वह और भी बहुत कुछ करना चाहता, पर उसे कुछ सूझता नहीं था। सोच-सोच के पागल हुआ जाता कि कुछ और बेचे, कोई और धँधा करे, पर उसे सिर्फ कचौड़ी बनाना आता था। वह सोच-सोच कर थक जाता और हर रात पैसे कमाने की कोई नई युक्ति खोजते हुए सो जाता। सुबह उठा कि सब गायब। उसकी कई पथप्रवर्तक युक्तियाँ नींद की भेंट चढ़ गईं। कचौड़ी बनाने के अलावा वह समाज के किसी काम का नहीं था। समाज उसे सिर्फ कचौड़ी वाले के रूप में जानता था, उसे मदन के रूप में न जानता, और न जानना चाहता था। मदन रात को खाली ढकेल लेकर आता तो हरी बाबू उसे गेट पर खड़े मिलते। मदन हरी बाबू के यहाँ किराए पर रहता था। दोनों के आने-जाने के अपने-अपने दरवाज़े थे। एक और दरवाज़ा था जो दोनों घरों को अंदर से जोड़ता था, पर वह हमेशा बंद ही रहता था।
सावन की बात है। कुछ दिनों से लगभग लगातार बारिश हो रही थी जिससे हवा में मसले हुए हरे पत्तों की गंध आने लगी। सब कुछ सीला और हरा भरा हो गया था। तीतर, झींगुर, मेंढक, छिपकली, जौंक, चींटियाँ पूरे अधिकार से घर के इर्द-गिर्द घूमने-फिरने लगे। सुबह बारिश सामान्य से थोड़ी अधिक हो रही थी जब हरी बाबू दफ्तर के लिए निकल रहे थे। उन्होनें दरवाज़े से बाहर की तरफ छाता खोला और फिर उसके अंदर खड़े हो दरवाज़े के हत्थे पकड़कर अपनी ओर खींचे। पल्ले बारिश की वजह से फूल गए थे, सो उनसे बंद नहीं हो पाए।
कँधे से लटकता हुआ बैग और टिफ़िन, बाईं मुट्ठी में ताला और दाएँ में चाबी पकड़े, गर्दन और कँधे के बीच छतरी फँसाकर वे दरवाज़ा बंद करने की कोशिश करने लगे। जब बात नहीं बनी तो उन्होंने ताला जेब में रख दिया और दोबारा प्रयास करने लगे। जब झटके से खींचकर बंद करने की कोशिश की, तो उनकी तर्जनी दरवाज़े के बीच में आ गई जिसकी वजह से दाईं मुट्ठी में बंद चाबी का गुच्छा नीचे नाली में गिर गया।
हरी बाबू ने गुस्से में दरवाज़े को लात मारी तो दरवाज़ा पुनः खुल गया। कुछ देर छाता पकड़े खड़े रहे, पर नाली से चाबी नहीं निकाली। उन्हें कुछ दूर से अभिषेक जादौन आता दिखाई दिया, ढलान से तेज़ बहते पानी में कुत्ते की तरह हाथ-पैरों से ‘छपाक-छपाक’ कर दौड़ लगाता हुआ। कभी ज़मीन पर गिर पड़ता, कभी जान बूझ कर लेट जाता, कभी आसमान की तरफ मुँह कर लेता, और फिर से कुत्ते की तरह दौड़ने लगता। हरी बाबू उसे दरवाज़े से खड़े देखते रहे।
अभिषेक जादौन सड़क पर बहते पानी को कुत्ते की तरह हाथ पैरों से पीटते-पीटते जब हरी बाबू के घर के पास आ गया, तो हरी बाबू ने उसे हल्के से पुकारा। अभिषेक जादौन हरी बाबू के पास इंसान बन कर पहुँचा, दो टाँगों पर। हरी बाबू ने उसे नाली से चाबी निकालने को कहा, उसने चाबी निकाली, हैंडपंप पर धोई और हरी बाबू को थमा दी। हरी बाबू ने अगला काम उसे छाता पकड़ने का दिया। खेंचा-खाँची कर हरी बाबू ने अंततः दरवाज़ा बंद कर दिया, और ताला लगाकर दफ्तर की ओर निकल गए। अभिषेक जादौन वापस कुत्ता बन छप-छप करता मैदान की ओर दौड़ने लगा।
अभिषेक जादौन मदन का दस साल का लड़का था; मदन का सबसे बड़ा निवेश और एक खरी सामजिक मुद्रा, जिसकी समय के साथ क़ीमत बढ़ती जा रही थी। उसके बाप ने उसका नाम पूरन रखा था, जो बाप की काफी आदतों की तरह, उसे पसंद नहीं था। उसे अपन े आप को अभिषेक जादौन कहलवाना अच्छा लगता था। पढ़ने लिखने का शौक़ था, पर संसाधन नहीं थे। जो अखबार के लिफ़ाफ़े मदन कचौड़ी पैक करने के लिए इस्तेमाल करता, अभिषेक जादौन उन्हें बहुत चाव से पढ़ता। एक दिन अख़बार की किसी ख़बर को पढ़कर उसने मदन से पूछा, "पापा, चुम्बन क्या होता है?"
मदन ने चूमने की आवाज़ निकाली और बोला, "ये!"
अभिषेक जादौन को यह तरीक़ा कुछ ठीक नहीं लगा। उसे लगा पापा ने उसका मज़ाक उड़ाया है। कुछ देर सोचा तो उसे लगा कि पापा ने कुछ ग़लत नहीं किया, बस समझाने का तरीक़ा अलग था। जब मैं बाप बनूँगा तो अपने बच्चे को ऐसे कतई नहीं समझाऊँगा। धीरे धीरे, "जब मैं बाप बनूँगा" वाक्य उसमे कुछ यूँ घर कर गया कि वह अपना ब ाप बन बैठा। अभिषेक जादौन का व्यक्तित्व मदन से ठीक उलट पनपने लगा। जो उम्मीद उसे मदन से रहती, वह पूरी न होने पर, डाँट पड़ने या पिटने पर वह अपने आप को वैसे ही समझाता जैसी अपने बाप से उम्मीद रखता।
"जब मैं बाप बनूँगा तो..."
अभिषेक जादौन को अपनी माँ की कोई विशेष स्मृति नहीं थी। उसे पढ़ना लिखना और बाक़ी कई आदतें मदन ने ही सिखायीं थीं। अभिषेक जादौन उन सभी आदतों को बदल देना चाहता था। किसी विद्रोही लेखक की तरह वह जीवन के हर अनुभव के नए बिम्बों की तलाश में रहता। उसने अपने बाप के सिखाये अक्षरों की बनावट बदलना शुरू कर दिया। मदन 'त' शिरोरेखा से शुरू करता, तो अभिषेक जादौन ने 'त' की सूंड़ से 'त' बनाना श ुरू कर दिया। उसने उल्टे हाथ से खाना और माँ को चिट्ठियाँ लिखना शुरू कर दिया। वह अक्सर सुबह रोते हुए उठता या रात को रोते-रोते सोता।
हरी बाबू रो नहीं सकते थे। उनकी समझ में वे बड़े हो गए थे। गलतियाँ करने, बुरा मानने या जल्दी गुस्सा होने के मामले में नहीं, सिर्फ रोने के मामले में। उन्हें एक दिन अभिषेक जादौन की चिट्ठी का एक भीगा टुकड़ा छत पर मिला, जिसमें बेतरतीब फैली स्याही के कारण बस यही समझ आया: "...पहले क्यों नहीं मर गईं?" चिट्ठी का वह टुकड़ा गीला हो जाने के कारण लगभग नष्ट हो गया था। हरी बाबू ने बहुत ढूँढा, पर चिट्ठी का शेष हिस्सा कहीं नहीं मिला।
इतवार को वे थोड़ी देर से सोकर उठे। बारिश हो रही थी। स ीलन के कारण दरवाज़ा पिछले कई दिनों से खुलने में दिक्कत कर रहा था। वे सुबह अखबार लेने जब बालकनी की ओर निकले तो देखा अभिषेक जादौन बाहर चबूतरे पर नाक में आधी तर्जनी डाले कुछ ढूँढ रहा था; आसपास नहीं, नाक के अंदर। वह धीरे-धीरे करके कुछ न कुछ निकालता जाता और चबूतरे से पोंछता जाता। हरी बाबू के डाँटते ही उसका हाथ नाक से बाहर निकल आया।अभिषेक जादौन तेज़ क़दमों से घर की ओर चलने लगा कि तभी... Buy your copy of 'Apne Apne Darwaaze' here! https://shorturl.at/WgDV8