

अलावा फुटकर झपकियों के, ओमप्रकाश त्रिवेदी कल पूरी रात ना सो सके। चिंता और बुढ़ापा उन्हें हर कुछ मिनट में झकझोर देते। उनका इरादा पूरी रात जागने का था, पर ऐसे टुकड़ों में नहीं। उनकी इच्छा थी कि वे रात को दिन में तब्दील होता देखें। एक हाथ में वाइन का गिलास और दूसरे में हरनूर का हाथ पकड़े, वे इंग्लैंड के साफ़ आसमान में घट रहे लाइव आर्ट एग्ज़िबिशन का लुत्फ़ उठाएँ, और जब सूरज दबे पाँव आसमान की छाती पर उभरे, वे दोनों एक दूसरे को चूम अंत की शुरुआत की ओर अग्रसर हो चलें। पर ऐसा कुछ भी न हो सका। सुबह के आठ बजे थे। टुकडों में सोने के कारण उनकी आँखें किरकिरी और मुँह का स्वाद बदमिजाज़ था। वे बेहद नाराज़ थे, और गुस्सा भी, बाक़ी दिनों के मुकाबले कई गुना ज्यादा, पर आज वे अपने गुस्से, अपनी नाराजगी, अपनी कमजोरी, यादें, निरर्थकता, घबराहट, बेचैनी, और हरनूर के आँसूओं से नहीं हार सकते, क्योंकि उन्हें मालूम था कि अगर वे आज हारे तो हमेशा के लिए हार जाएँगे।
‘ठक ठक ठक!’
बिस्तर और इलेक्ट्रिक कम्फर्टर में धँसे, होटल के कमरे की बालकनी के पार फायली के समुद्र को उठता-गिरता देख रहे ओमप्रकाश का ध्यान भंग हुआ। दस्तक सुनते ही वे कम्फर्टर अपने ऊपर से हटा, बहत्तर वर्ष की दीर्घ आयु की अवहेलना सी करते हुए झटके से फर्श पर खड़े हुए और हिरन सरीखी 2-3 छलाँगों में दरवाज़े तक पहुँच गए। पलटकर देखा, हरनूर अब भी गहरी नींद में थीं। ओमप्रकाश ने दरवाज़ा खोला और देखा, सामने स्टुअर्ट था।
‘Good morning, Miste... I am sorry. Should I come later? ओमप्रकाश के अस्त-व्यस्त कपडे और सूजी आँखों को देख स्टुअर्ट अनायास कह पड़ा।
‘Good morning, Stu.’ ओमप्रकाश ने पूछा, ‘What is it?’
‘This came in last night.’ स्टुअर्ट ने गुलाबी पेस्टल शीट में लिपटा हुआ तोहफा ओमप्रकाश की तरफ बढ़ा दिया।
‘Thank you, Stu.’
‘No worries. Have a nice day!’ स्टुअर्ट मुस्कुराते हुए एक क़दम पीछे हटा और वापस चला गया।
ओमप्रकाश ने पानी उबलने रखा और खिड़की के पास रखी कुर्सी पर बैठ गिफ्ट का मुआएना करने लगे। गिफ्ट बड़ा था, दोनों हाथों में उठाये जाने लायक। गर्दन उठा बाईं ओर नज़र मारी, देखा, हरनूर की करवटों का सिलसिला बढ़ने लगा था। ओमप्रकाश जानते थे इसका क्या मतलब है। हरनूर की नींद पूरी हो चुकी थी। वे बस चाय के इंतज़ार में बिस्तर पर टहल रही थीं, जो उन्हें पता था अगले कुछ मिनटों में उनके सामने होगी। गिफ्ट रख ओमप्रकाश खड़े हुए और दो कपों में चाय बनाने लगे। चाय लेकर वे जैसे ही हरनूर के सिरहाने पहुँचे, वे दोनों कप मेज़ पर रख वहीँ पास रखी कुर्सी पर बैठ गए। चेहरे पर एक खुल के जी हुई ज़िन्दगी और जहाँ-तहाँ बिखरे चांदी के तारों के पीछे, उन्हें अपना पहला प्यार दिखा। ओमप्रकाश हरनूर के चेहरे को आँखों से सहला ही रहे थे जब हरनूर ने अपनी अलसाई आँखें खोलीं, बिना क्षणिक डर या संकोच के। वे ऐसी सुबहों की अभ्यस्त थीं।
‘Happy sixty seventh, नूर जी।’ ओमप्रकाश मुस्कुराते हुए हरनूर की तरफ झुके और उनकी भवों पर अपने होंठ रख दिए।
‘Thank you, ओमी जी।’ ओमप्रकाश ने उन्हें सहारा देकर बिठाया और चाय का कप थमा दिया। दोनों चुपचाप एक दूसरे को देख रहे थे, और उनके देखने में शामिल था उनका पूरा जीवन, जिसके पैंतालीस साल दोनों ने साथ जिए। उम्र के जिस पड़ाव पर ओमप्रकाश और हरनूर पहुँच चुके थे, उसकी उन्होंने कभी कल्पना भी नहीं की थी। अपने में वे कितना ख़ुद थे और कितना दूसरा, कहना मुश्किल था।
‘खाली पेट वाली दवाई ले ली?’ हरनूर ने दवाई की शीशी खोलते हुए पूछा।
‘अब क्या ज़रुरत है?’
‘क्यों?’
‘एक दिन में आर्थराइटिस ठीक हो जाएगा? आप भी मत लो। ये लो, ये चाहिए आज।’ ओमप्रकाश ने एक डिब्बी से गोली निकाल हरनूर की तरफ बढ़ा दी।
‘ये क्या है?’
‘इससे नहीं मरोगी।’ ख़ुद उस डिब्बी से एक गोली पानी से सटक कर ओमप्रकाश ने अपना चाय का कप उठा लिया।
‘कल कब सोई मैं?’
‘दो बजे करीब।’
‘Sorry, आप पूरी रात जागना चाहते थे ना।’
‘हाँ चाहते तो थे...’
‘तो अगर ऐसा करें कि आज का प्लान कल पोस्टपोन...’
‘अब इस टाइम इस बात का क्या मतलब है! जैसे-तैसे करके...’ ओमप्रकाश को महसूस हुआ उनकी आवाज़ ऊँची हो गई थी। उन्होंने धीमी आवाज़ में बात जारी रखी, ‘हरनूर आप और मैं पचास दिन से अपनी चाहत ही तो जी रहे हैं न, हैं कि नहीं? सब कुछ तो कर लिया न? चुन-चुन के जी लिया... बताओ? आज के लिए ही न? अब अगर आज का काम कल पर टाल देंगे ना, तो फिर ये टल ही जाएगा, और अगर ये टल...’ ओमप्रकाश की आवाज़ टूटने लगी तो हरनूर ने उनके घुटने पर अपना हाथ रख दिया। ओमप्रकाश ने बोलना जारी रखा, ‘अगर आज ये टल गया न... तो आपका तो कुछ नहीं जाएगा, मैं रह जाऊँग... नहीं नहीं नहीं... सुनिए, आज कोई नहीं रोयेगा!’ ओमप्रकाश ने कुर्सी से उठ कर हरनूर के आँसू पोंछे, ‘बहुत रो लिए अब क्या मतलब है रोने का! यहाँ इतना पैसा खर्च करके इंग्लैंड रोने आए हैं?’
‘जो करने आए हैं वो भी कौन करने आता है!’
‘उससे हमें क्या मतलब कौन करने आता है कौन नहीं आता है! हम करने आए हैं बस बात ख़तम!’ ओमप्रकाश की आवाज़ फिर ऊँची हो गई।
‘तो जाओ ख़ुद ही कर लो जो करने आए हो सुबह-सुबह चिल्लाओ मत!’
‘चिल्ला नहीं रहा हूँ मेरी आवाज़ ही... अच्छा सॉरी। सॉरी मैं तेज़ बोला। सॉरी सॉरी सॉरी...’ आठ-दस बार ‘सॉरी’ बोलने के क्रम में ओमप्रकाश हर ‘सॉरी’ के बाद हरनूर का कन्धा चूमते, और यह सिलसिला उनके मुस्कुराने के कुछ क्षण बाद तक भी जारी रहा।
‘हाँ-हाँ ठीक है। अच्छा क्या प्रोग्राम है आज का?’
‘लिख के दे दूँ?’
‘नहीं लिख के मत दो, बस एक बार और बता दो,’
ओमप्रकाश ने धीरे-धीरे बोलना शुरू किया, ‘नहा धो के चेक आउट करके, पहले कैंब्रिज जाएँगे, फिर वहाँ से मैं चलाऊँ तो पाँच, आप चलाओ तो चार घंटे में लन्दन... फिर वहाँ थोड़ी बहुत देर रुक-रुका के...’
‘Thank you.’ हरनूर ने कहा। जवाब में ओमप्रकाश हरनूर का माथा चूम, उठकर बालकनी में चले गए।
‘पहले आप नहाएँगे या मैं जाऊँ?’ हरनूर ने बाथरूम का दरवाज़ा खोलते हुए पूछा।
‘ये आपके किसी चाहने वाले ने जन्मदिन का तोहफा भेजा है पहले वो तो देख लीजिये।’
‘यहाँ कौन...’ सवाल पूछने से पहले ही हरनूर के मन में जवाब कौंध गया। वे बच्चों सी उत्सुकता लिए गिफ्ट की तरफ बढीं और उसका कागज़ फाड़ने लगीं।
‘ये!’ हरनूर स्तब्ध खड़ी रह गईं।
‘क्या है बताओ?’ ओमप्रकाश झुककर हरनूर की आँखों में देखने की कोशिश कर रहे थे। हरनूर की बाईं आँख से एक आँसू गिर पड़ा।
‘आपकी तरह भुलक्कड़ नहीं हूँ। ये बताओ ये आए कहाँ से?’
‘दस-बारह दिन पहले पुंडीर को फ़ोन किया और कहा कि भई तुम्हारी जीजी का जन्मदिन है, तुम एक काम करो, जो घर पे ताला लगा है उसे तोड़ के स्टोर की बीच वाली अलमारी में सबसे नीचे जो शादी के स ूट और साड़ी रखे हैं उन्हें हमें कुरियर कर दो। हमने सोचा विंटेज गाडी की तरह दोनों अपने पैंतालीस साल पुराने गेट-अप में इंग्लैंड की सैर करेंगे; लगेगा मंडप से सीधा हनीमून मनाने लन्दन आ गए हैं, क्यों?’
हरनूर कपड़ों को बहुत पहले देखना छोड़ चुकी थीं। वे लगातार ओमप्रकाश को बोलता देख रही थीं, और जैसे ही वे चुप हुए, हरनूर ने मुस्कुराते हुए नज़रें फेर लीं।
‘एक मिनट एक मिनट एक मिनट... ये क्या किया अभी आपने?
‘क्या?’ हरनूर मुस्कुराते हुए ओमप्रकाश से आँखें बचाने लगीं।
‘हरनूर जी, आप ये क्या कर रही हैं?’ ओमप्रकाश झुककर हरनूर की आँखों में देखने का प्रयत्न करने लगे। हरनूर ने उनसे दोबारा मुँह फेर लिया। उनका मुस्कुराना खिलखिलाने में बदल गया तो ओमप्रकाश ने उनके कंधे हल्के हाथों से पकड़ लिए।
‘Are you blushing, हरनूर जी?’
‘I think that pill you gave me just kicked in.’ हरनूर की हँसी पूरे कमरे में गूँज गई। वे ओमप्रकाश के हाथों को अपने कँधों से हटा अपने कपडे अलमारी से निकालने लगीं।
‘बस... यही तो! पता होता न शादी से पहले कि ये शर्म, नज़ाक़त, अदाएँ शादी की मेहँदी से पहले उड़ जाएँगी तो...’
‘तो क्या, नहीं करते शादी?’ हरनूर ने बाथरूम के अन्दर दाखिल होते हुए पूछा।
‘तब की तब...’
‘अच्छा सुनो, मेरे पास भी आपके लिए एक गिफ्ट है।’ हरनूर ने कहा।
‘कहाँ रखा है?’
‘मेरे पास।’
‘लाओ दो।’
‘ख़ुद ले लो।’ हरनूर ने बिना दरवाज़ा बंद किए शावर चलाया और उसके नीचे खड़ी हो गईं।
***
‘देखो ये वाला है मैथमेटिकल ब्रिज।’ पंट में बैठे, कैंब्रिज यूनिवर्सिटी के ब्रोशर में मौजूद तस्वीर को सामने दिख रहे पुल से मिलाते हुए ओमप्रकाश ने कहा। हरनूर, कुछ खोई सी, कैम नदी के किनारे खड़े पत्थर की विशालकाय इमारत को देख रही थीं।
‘क्या?’ हरनूर ने हडबडाकर पूछा।
‘मैं कह रहा हूँ ये वाला है मैथमेटिकल ब्रिज। पहले जो कह रहा था वो वाला नहीं था। ये वाला पुल पता है साबुत...’
‘हे भगवान् सबसे पहले तो आप ये ब्रोशर बैग में रखो और यहाँ आकर बैठो। किसने कहा है गाइड बनके घूमने के लिए?’
ओमप्रकाश घुनघुनाते हुए चलते पंट में धीरे-धीरे सरककर हरनूर के पास आकर बैठ गए। ‘तो बस मूर्खों की तरह नाव में चुपचाप बैठे रहे, हैं? यही करना था तो गोमती क्या बुरी थी? एक तो मैं...’
‘सबसे पहले तो लखनऊ और कैंब्रिज को कम्पेयर करना बंद करो, और आप उस नाव वाले के साथ घूमने आये हो? यहाँ से वहाँ क्यों चले गए? ये देखो, कितना सुन्दर कैं पस है। हर चीज़ कितनी साफ़ है।’
‘हम्म।’
‘ओमी?’
ओमप्रकाश कुछ क्षण चुप रहे। और फिर, नए सिरे से ऐसे बात शुरू की जैसे कभी नाराज़ ही न थे। ‘टोटल कितनी बार अप्लाय किया था आपने यहाँ?’
‘अब तो याद भी नहीं। बेचलर्स से अप्लाय करना शुरू कर दिया था। मास्टर्स के लिए किया, पीएचडी के लिए किया, फिर जॉब के लिए किया। बस करती ही रही...’
‘हाँ तो हर कोई मेरे जितना खुशनसीब थोडई है।‘
***
पंट से उतरकर दोनों कैंब्रिज की लाइब्रेरी, कुईंस कॉलेज और एक दो जगह ही घूम पाए थे कि तीन बज गए। ओमप्रकाश के फ़ोन में अलार्म बजा और वे तुरंत हरनूर को लेकर फैकल्टी ऑफ़ इकोनॉमिक्स की तरफ चल पड़े। हरनूर लखनऊ विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के विभागाध्यक्ष के पद से सेवानिवृत्त हुई थीं। कैंब्रिज की फैकल्टी ऑफ़ इकोनॉमिक्स और उसके कई पदाधिकारियों का नाम ओमप्रकाश ने हरनूर के मुँह से अलग-अलग मौकों पर कई बार सुने थे। अन्दर घुसते ही ओमप्रकाश आते-जाते लोगों से डॉक्टर एडिथ बर्न्स के दफ्तर का रास्ता पूछने लगे। हरनूर ने पूछा तो कह दिया, ‘थोड़ी देर रुको, एक सरप्राइज है।’ अंततः जब डॉक्टर बर्न्स का दफ्तर मिला, ओमप्रकाश ने दरवाज़े पर दस्तक दी और हरनूर को बाहर बिठा अन्दर चले गए। कुछ देर बाद वे डॉक्टर बर्न्स के साथ बाहर निकले। छोटे क़द की घुंघराले बालों वाली डॉक्टर बर्न्स ने हरनूर को जन्मदिन की मुबारकबाद दी और कहा, ‘It’s a shame we couldn’t use you here,’
‘Oh, it’s nothing.’ हरनूर ने कहा।
‘But better late than never, right?’
‘Sorry?’ इससे पहले हरनूर कुछ समझ या पूछ पाती, ओमप्रकाश और डॉक्टर बर्न्स तेज़ क़दमों से कॉरिडोर के दाहिने छोर की ओर चल पड़े, और कुछ ही मिनटों बाद हरनूर को स्टैन्डीज़ की कतार दिखाई दी जिसपर उनका चेहरा था। साथ में लिखा था:
University of Cambridge’s
Faculty of Economics Welcomes
Dr. Harnoor Brar Trivedi (PhD, University of Delhi)
For Her Guest Lecture on
The Co-relation of Macro Economics and Environment
‘ये क्या ओमी?’ हरनूर पहल े स्टैन्डी के पास जड़वत खड़ी रह गईं।
‘यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैंब्रिज का गिफ्ट।’ ओमप्रकाश बोलते हुए क़दम आगे निकल चुके थे। जब देखा हरनूर पीछे रह गईं, उनके पास गए, बोले, ‘This was long due, Noor. Here you are.’
‘आपका दिमाग खराब है क्या? I am out of touch with the topic for the past se... और ये सब हुआ कैसे? How could you…’
‘आप आउट ऑफ़ टच हो ये हमें पता है, उस क्लास में बैठे लोगों को थोडई पता है। और वैसे भी, कौनसी आपकी प्रेस्टीज दाँव पर है। आज मरे कल दूसरा दिन।’
दोनों अपनी दलीलें पेश करते-करते सेमिनार हॉल के सामने आ गए। गर्दन उचकाकर हरनूर ने देखा, सैकड़ों बच्चे और कुछ प्रोफेसर्स लेक्चर शुरू होने की प्रतीक्षा कर रहे थे। डॉक्टर बर्न्स डायस के पीछे खड़ी हो हरनूर का परिचय देने लगी। हरनूर की अन्दर दाखिल होने की हिम्मत नहीं हो रही थी। वे झेंपी हुई सी दरवाज़े के बाहर खड़ी थीं, जिसका एक कारण उनके चमकीले वैवाहिक परिधान भी थे।
‘हरनूर, आपने इसके लिए बहुत इंतज़ार किया है। Make it quick and make it count. अगर आप नहीं करना चाहती तो कोई बात नहीं, मैं कह दूँगा आपकी तबियत ठीक नहीं है।’
‘नहीं, रुको।’ हरनूर ने दो मिनट लिए और उसके बाद तेज़ क़दमों से अपने नाम की पट्टी के पीछे रखी कुर्सी पर बैठ गईं। अपना नाम पुकारे जाने पर गुनगुनी तालियों के बीच हरनूर कुर्सी से उठकर डायस के पीछे जाकर खडी हो गईं।
***
‘अरे हाँ भई नहीं होंगे लेट, आप मुझे ये बताओ वो लास्ट... नहीं नहीं यहाँ नहीं... उस वाली पर बैठेंगे।’ सैंट जोन्स कॉलेज के लॉन में लगी बैंच पर लगभग बैठ चुकी हरनूर को ओमप्रकाश ने टोका और उससे कुछ क़दम आगे एक नई-सी दिखने वाली बेंच पर बैठ गए। ओमप्रकाश ने दोनों हाथों में पकडे कॉफ़ी ग्लासेज में से एक हरनूर को पकड़ा दिया।
‘हाँ क्या कह रहा था विलियम्स?’
‘वही जो सेमिनार के बाद ज़्यादातर लोग बोलते हैं... टॉपिक ऑफ-बीट है, people should hear more about it.’
‘तो अब more people कहाँ से लाएँ? किया तो था पाँच सौ बार अप्लाय इन्होनें उसका...’
‘अरे विलियम्स प्लीमथ यूनिवर्सिटी से है।’
‘अच्छा अच्छा... फिर?’
‘फिर कुछ नहीं, मैंने कहा, there are a few scholars back home. They are actively researching on this topic. I’ll share their details with you. You can hold a conference or establish some sort of sister-research centre if you wish.’
‘फिर?’
‘फिर बोला ‘Sure sure why not.’ कहता है, ‘By the way, I was chatting with your husband a while ago. I am so sorry about your…’’
‘मर बहन...’
‘ओमी?’
‘Sorry.’
‘Did all this happen because you told them abo…’
‘नहीं नहीं रुको एक मिनट, मुझे पता था आप ऐसा सोचोगी, रुको एक सेकंड, देखो, ये रहा पूरा मेल थ्रेड। I talked to them as your manager and nowhere I mentioned anything about it. आप आराम से देख लो।’ ओमप्रकाश ने अपना फ़ोन हरनूर की तरफ बढ़ा दिया।
‘छोड़ो। शायद मेरी इन्सेक्योरिटी ही है ये...’
‘हाँ जब एकदम से कुछ ऐसा हो जाता है जो सालों से नहीं हुआ तो लगता है ऐसा।’
‘पर मुझे समझ नहीं आ रहा इतने सालों बाद ये हुआ कैसे।’
‘I think you should have hired me as your manager back then.’
‘हाँ हाँ सही कह रहे हो। चिट्ठियाँ बाँटने से फुर्सत मिलती तब तो बनते मेरे मेनेजर।’
‘चिट्ठियाँ नहीं बाँटता था मैं। I was the regional…’
‘हाँ हाँ ठीक है।’ हरनूर ने हँसते हुए कॉफ़ी का घूँट लिया। ‘Why couldn’t we ever make our coffee like this?’ हरनूर कॉफ़ी गिलास को सूँघ रहीं थीं।
‘Because it’s not just coffee.’ ओमप्रकाश सामने इमारत से आते-जाते लोगों को देख रहे थे। वे जूते-मोज़े उतारकर घास को अपने पैरों की उँगलियों से सहलाने लगे। हरनूर ने भी वैसा ही किया। कुछ देर तक चलने वाली चुप्पी को हरनूर के फ़ोन पर आए मेसेज ने तोडा।
‘देखो मोहित का मेसेज आया है।’
‘हरनूर, कितनी बार...?’
‘हाँ तो बस मेसेज पढ़ रही हूँ, उसका रिप्लाई थोडई कर रही हूँ।’
ओमप्रकाश कुछ देर हरनूर की तरफ़ देखते रहे, ‘ठीक है।’
‘Thank you,’ अच्छा आप भी सुनो. ‘To the best and most courageous Mumma in the world, a very happy and joyful birthday to you. We know you are not picking up our calls because of Papa and it is okay. These are just hard times and we are stronger than this. रिश्तों पर give up ना करना हमनें आप दोनों से ही सीखा है। We love you and miss you so so so much. Eagerly waiting for you and Papa to come back so we can make things normal again. Can’t wait to see you both! Take care, Mumma. We love you.’
‘हम्म... रिश्तों पर ‘गिव अप’ ना करना तो हमसे सीखा है, और ये लपकागिरी करनी कहाँ से सीखी है इसने?’
‘अरे, मोहित बस बर्थडे wish...’
‘सच में हरनूर? दो महीने पहले ये क्या कह रहा था याद नहीं है?’
‘अरे अपने ही बच्चे हैं न ओमी...’
‘जाने दो। कुछ और बात करते हैं।’
‘ठीक है।’
दोनों पुनः चुपचाप कॉफ़ी पीने लगे। ओमप्रकाश बैंच के हत्थे को सहला रहे थे। उन्होंने हत्थे को देखा, फिर कुछ ही दूरी पर रखी दूसरी बैंच को देखा, बोले, ‘ये जिसपे हम बैठे हैं ये वाली अभी नई लगी है शायद, हैं न? देखो हैंडल-वेन्डेल सब नया है एकदम।’
‘हाँ, नई लग रही है।’
‘वैसे कितना बढ़िया आईडिया है न, जिसको हमेशा के लिए कैंब्रिज के इकोनॉमिक्स डिपार्टमेंट का हिस्सा बने रहना हो, अपने नाम की एक बैंच ये सैंट जोंस कॉलेज में डोनेट कर दे। ख़ुद तो बैठेगा ही, अपनी गोद में ना जाने कितने भावी एकोनोमिस्ट्स को भी बिठाएगा।’
‘हाँ आईडिया तो बहुत अच्छा है। यही बर्थडे गिफ्ट...’ हरनूर अपना वाक्य अधूरा छोड़ झटके से पीछे मुड़ीं और बेंच पर लगे प्लैक को देखकर अवाक रह गईं। ‘ओमी नौ वे!’
प्लैक पर लिखा था,
‘In the fondest memory of Dr. Harnoor Brar Trivedi, who always wanted to hang around the campus.’
***
कैंब्रिज से दोनो सीधा लन्दन के ‘ये ओल्डे चेशे चीज़’ पहुँच कर ही रुके; शाम के सात बज गए थे। छोटी छत वाले उस कैफ़े में बैठे दोनों अपने आखिरी पड़ाव को ठहरती नज़रों से देख रहे थे, हालांकि कम रोशनी के कारण कुछ भी बहुत साफ़ नहीं दिख रहा था। उजाले के लिए सिर्फ कुछ धीमे जलते बल्ब और फायरप्लेस में जल रही आग थी। पुरानी लकड़ियों, राख और कोयले की गंध पब की आंतरिक आबोहवा को का फी ‘लकड़ीनुमा’ बना रहे थे। दोनो ब्रांडी के ग्लासेज थामे इत्मीनान से बस कुछ क्षण पहले बैठे ही थे कि ओमप्रकाश झेंप मिटाने के लिए अनायास बोल उठे,
‘I think this is how our pyre would smell.’
हरनूर जवाब नहीं देती। लन्दन आते-आते वे कुछ गंभीर रहने लगीं थीं। उन्हें महसूस होने लगा था कि यह पब उनकी ज़िन्दगी का आखिरी पब होगा, यह शहर उनकी ज़िन्दगी का आखिरी शहर, और यह दिन उनकी ज़िन्दगी का आखिरी दिन, और इस सब के बारे में उन्हें आठ महीने पहले से पता था। छः महीने की योजनाओं, जुगाड़ों, लड़ाइयों, और ज़िन्दगी भर की पूँजी व महत्वाकांक्षाओं का नतीजा थी यह यात्रा, जिसके दोनों ने मिलकर कुछ नियम तय किए थे:
1. दोनों पचास दिन की यूरोप यात्रा पर निकलेंगे, जिसमें दोनों अपनी-अपनी पसंद की पच्चीस (कुल मिलाकर पचास) जगहों का भ्रमण करेंगे।
2. भ्रमण के लिए पहले स्थान का चयन आपसी सहमति से किया जाएगा, और उसके उपरांत अगली जगह दूसरे व्यक्ति की चुनी हुई होगी। उदाहरणस्वरुप, अगर दोनों आपसी सहमति से पहला स्थान वह चुनते हैं जो हरनूर को पसंद है तो अगला स्थान स्वतः ओमप्रकाश की पसंद का होगा।
3. चुनी गई जगह के बारे में जानकारी साझा करने का निर्णय वैयक्तिक होगा।
4. इन पचास दिनों की यात्रा में दोनों किसी को किसी भी चीज़ के लिए नहीं टोकेंगे, न ही लड़ेंगे, न ही अपने बच्चों समेत बाहरी दुनिया के किसी इंसान से बात करेंगे।
5. यात्रा शुरू करने से पहले ओमप्रकाश और हरनूर अपने दिल्ली स्थित आवासीय घर समेत सारी चल-अचल संपत ्ति को क़ानूनन रूप से बेच या दान कर देंगे, ताकि उनके पास अपने निर्णय से डिगने का कोई चारा न हो।
6. यात्रा के अंतिम दिन, हरनूर के जन्मदिवस, अक्तूबर 15 को ठीक रात 12 बजे, ओमप्रकाश और हरनूर ब्रार त्रिवेदी मानवीय सभ्यता के किसी भी प्रकार के दख़ल से दूर, खुले आसमान के नीचे आत्महत्या करेंगे।
‘हम यहाँ क्यूँ आए हैं?’ हरनूर ने कैफ़े की छत देखते हुए पूछा।
‘मैं चाहता था एक बार अपने फेवरेट रायटर को दुनिया के बेस्ट रायटर्स की संगत में देखूँ।’
‘अच्छा,’ हरनूर ने हँसने का दिखावा किया, ‘मतलब?’
‘मतलब मार्क ट्वेन, चार्ल्स डिकेन्स, टेनिसन, समुएल जॉनसन, वुडहाउस वगैरह यहाँ आते थे। हमने सोचा आप भी यहाँ एक बार आकर इस जगह को कृतार्थ करें।’
‘अच्छा।’
ख़ामोशी।
‘आप कुछ परेशान सी लग रही हो? सब ठीक है?’ शादी के बाद से ओमप्रकाश यह सवाल हरनूर से दिन में चार-छः बार पूछ ही लेते थे। कई बार हरनूर अपनी परेशानी बता देतीं, कई बार नहीं भी बतातीं। कई बार परेशानियाँ मानसिक होतीं, कभी-कभार शारीरिक। जैसे-जैसे साल बीतते गए, इस सवाल की आवृत्ति बढती गई। 8 महीने पहले, जब से हरनूर के लंग कैंसर पता चला, तब से यह सवाल दिन में लगभग पंद्रह-बीस बार पूछा जाने लगा। कभी-कभी हरनूर इस सवाल से ही झुँझला जाती और कहतीं, ‘हाँ परेशान हूँ, इस बात से कि तुम चुपचाप परेशान भी नहीं होने देते!’ पर ओमप्रकाश मजबूर थे। उनकी ख़ुशी सीधा हरनूर की ख़ुशी पर निर्भर करती थी। वे चाहते थे कि हरनूर की हर परेशानी को हल कर दें, उनकी हर उलझन सुलझा दें। पर हरनूर सुझाव नहीं चाहती थीं, वे बस एक श्रोता चाहती थीं, जिसके कान पर वे अपना दुःख-दर्द उतार सकें, और दूसरी तरफ से कोई जवाब ना आए। जब अपने आखिरी पड़ाव पर हरनूर ने यह सवाल सुना, वे इसे अपने मन में कहीं भीतर कुछ अधिक महसूस कर गईं और उनकी आँखें छलछला उठीं।
‘हरनूर? तबियत ठीक है?’ ओमप्रकाश घबरा गए।
‘हाँ हाँ सब ठीक है, परेशान मत हो।’ हरनूर ने अपनी सबसे आम प्रतिक्रिया दोहराई। ओमप्रकाश ने कुछ न कहा। हरनूर ने बात शुरू की।
‘आपको डर नहीं लग रहा?’
‘किस बात का?’
‘जो हम आज रात करने वाले हैं,’
‘आपके बिना जिंदा रहने से ज्यादा डरावना कुछ नहीं हो सकता।’
‘मुझे बहुत अजीब लग रहा है इस पूरे निर्णय को लेके,’
‘Noor, we have talked about this…’
‘हम्म...’
ब्रांडी दोबारा आई। आधी ड्रिंक ख़त्म करने के बाद हरनूर बोलीं, ‘I have also got something for you.’
‘क्या?’
‘आप को खटकता था न कि मैंने बच्चे होने के बाद लिखना छोड़ दिया...’ हरनूर ने हैंडबैग से लैपटॉप निकाला।ओमप्रकाश के दिमाग में कड़ियाँ जुड़ने लगीं, ‘हाँ?’ उन्होंने कहा,
‘आपका रिटर्न गिफ्ट,’ हरनूर ने लैपटॉप पर कुछ टाइप कर ओमप्रकाश की तरफ सरका दिया। ओमप्रकाश ने लैपटॉप अपनी तरफ घुमाया। स्क्रीन पर एक किताब का कवर था, जिसका शीर्षक था ‘The Last Vacation.’ ओमप्रकाश स्क्रॉल करते हुए अपने पिछले दो महीने पुनः जी गए। उन सौ-डेढ़ सौ पन्नों में उन दोनों का पूरा सफ़र था। वापस मुख्य पृष्ठ को फिर से देखने के लिए वे ऊपर स्क्रॉल करने लगे, नज़र प्रस्तावना पर पड़ी और एक जगह ठहर गई। वे पढने लगे,
‘जब पता चला कैंसर वापस आ चुका है, मैं दिन भर कुछ न कुछ सोचती रहती; ज़िन्दगी और उसमें हो रहे अनगिनत-अनवरत बदलावों के बारे में, जिनके बारे में मेरा ज्ञान हमेशा अल्प ही रहा; सोचती कुछ थी, करती कुछ थी, होता कुछ था। ‘कौन अच्छा है’, ‘कौन बुरा है’, ‘मैं कितनी अच्छी हूँ, और क्यों?’, ’अच्छाई होती क्या है?’
बस ऐसे ही ख्यालों का स्वेटर बुनती रहती। फिर एक दिन अचानक समझ आया कि माजरा क्या है। हम सब के सब पूरी उम्र अपने व्यक्तिगत सफ़र में रहते हैं। रास्ता, गाडी, पड़ाव, सहयात्री, सब व्यक्तिगत। यह यात्रा हमारे जीने से शुरू होती है और मरने पर ख़त्म।
सभी की तरह मैं भी अपने सोच के रास्ते पर ज़िन्दगी भर चलती रही। कहाँ पहुँची? क्या पाया? कुछ कह नहीं सकते, कोई नहीं कह सकता। बस, इतना जानती हूँ कि मेरी थकान कह रही है कि मेरी मंजिल क़रीब है। सुस्ताने बैठी तो सोचने लगी। समझ आया कि ज़िन्दगी मंजिल से नहीं पडावों से बनती है, और उनका कोई अंत नहीं होता।
पता चलता है कि जब सफ़र करना ही है, तो क्यों न उसे यादगार बनाएँ, सिर्फ अपने लिए नहीं, दूसरों के लिए भी।
यह किताब उस दिशा में एक छोटा और आखिरी क़दम है।’
ओमप्रकाश ने आँखें उठाईं, देखा हरनूर की नज़र उन पर पहले से टिकी हुई थी। हरनूर ऐसा हमेशा करती थीं। जब ओमप्रकाश हरनूर का लिखा कुछ पढ़ते, हरनूर उनका चेहरा पढ़तीं। और पढ़ लेने के बाद दोनों घंटों लिखे हुए पर बातें करते। उसकी कमियाँ, खूबियाँ, और संभावनाएँ साझा करते। पर आज ओमप्रकाश चुप थे।
‘मुझे नहीं पता ये मैंने क्यूँ किया, कहाँ से इसका ख्याल आया, कहाँ से ताक़त आई...’
‘Thank you.’ ओमप्रकाश यह बोलकर उठे और हरनूर के बगल में जाकर बैठ गए।
‘Thank you for being such a wonderful co-pilot.’
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लन्दन से निकलकर दोनों तकरीबन साढ़े नौ बजे मेफील्ड के एक बहुत छोटे कस्बे पहुँचे, जहाँ उन्होंने एक रात के लिए कमरा ले रखा था। होटल पहुँचकर दोनों ने आराम किया, कपडे बदले, खाना खाया, और रात के लगभग पौने बारह बजे गाडी लेकर घूमने निकल दिए। सड़क के दोनों तरफ घास से ढके हुए मैदान थे, और ऊपर तारों से जगमगाता आसमान। ओमप्रकाश ने रास्ते में गाडी रोकी और दोनों बूट में से दो फोल्डेबल कुर्सियाँ निकाल कर मैदान के एक किनारे बैठ गए। वे पूरी तैयारी के साथ आए थे। हरनूर के हाथों में जो शाल थी, उन्होंने वह दोनों के कँधों पर डाल दी। ओमप्रकाश मेफील्ड के होटल से एक फ्लास्क कॉफ़ी बनाकर लाए थे, जिसका साथ हरनूर के भारत से बनाकर लाए गए लड्डुओं को निभाना था। इन आख़िरी पलों में, उनकी ज़िन्दगी ठीक वैसी थी जैसी उन्होंने चाही थी, पर्याप्त गर्माहट और मिठास के साथ।
‘शुरू करें?’ ओमप्रकाश ने हरनूर की तरफ देखा। दोनों के हाथों में एक-एक कैप्सूल था।
‘करते हैं।’ हरनूर सामने देख रही थीं। वे निष्क्रिय बैठी रहीं।
‘कुछ रह गया?’
‘नहीं, सब हो गया,’ हरनूर की मुस्कान ने ओमप्रकाश को उनका विवाह याद दिला दिया।
‘और आपका?’
‘क्या?’ ओमप्रकाश का ध्यान टूटा।
‘आपका कुछ रह गया?’
‘मेरा तो सब बहुत पहले पूरा हो गया था ।’
‘बस फिर।’ हरनूर ने ओमप्रकाश के सीने पर सर रख दिया।
दोनों कुछ देर ख़ामोश बैठे रहे, और फिर वापस होटल लौट गए, जहाँ उन्होनें रात भर बातें कीं और अगले दिन सुबह देर तक सोते रहे।
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