

आ गए सब? बहुत बढ़िया! तो दोस्तों जैसा कि आप जानते हैं, ये दुनिया बहुत बड़ी है और इस दुनिया में बहुत कुछ है। पर एक बात हम अक्सर भूल जाते हैं और वह यह कि जो इस दुनिया में नहीं है वह बहुत कुछ से बहुत ऊँचा है, अगाध है। जो कुछ नहीं है वह या तो घटा नहीं या घट के भी मरा नहीं है। आज हम करेंगे भ्रमण उस इलाके का जहाँ हम देखेंगे वह सब जो है ही नहीं। क़दमों में फुर्ती रखना नज़रों में चुस्ती, भ्रमण है लंबा और आदमी का क्या है कि वह भटक जाता है। पर देखा है मैंने अपने अनुभव से, भटका हुआ भी कहीं न कहीं निकल ही जाता है; बन भी जाता है, बिगड़ भी जाता है। बहरहाल, समय के वक्ष से झूलती कालजयी घटनाओं का यह दौरा गहरा है। किसी भी बात को दिल से न लगाना, दो-चार छालों से घबराना नहीं, चोटी से पसीने को बहने ही देना और हाथ थामे रहना। हाथ थामे रहने के जो फायदे हैं, वह बाक़ी चीज़ों के साथ समय रहते समझ आएँगे। तो आइये शुरू करते हैं अपनी यात्रा, जिसका पहला पड़ाव है झेलूपुर।
गर्द के गर्भ में अण्डे दे रहे ये पत्थर रोज़ एक से दो होते हैं; जुड़कर नहीं टूटकर। एक समय था जब यह परिदृश्य वीरान था, फिर आबाद हुआ और बनने-बिगड़ने की प्रक्रिया को लगातार अपने सीने पर झेलता रहा। ये उधड़ा ज़मीन का टुकड़ा प्रतिनिधि है उस सब का जिसने कभी मैदान नहीं छोड़ा। आखिरी बार उजड़ने के घटनाक्रम की शुरुआत में यहाँ एक बस्ती थी। छोटी-बड़ी तो क्या बताएँ बस इतना समझ लीजिये कि छोटी इतनी कि सरकार देख न पाती, और बड़ी इतनी कि बिल्डर्स भुला नहीं पाते। यह घर था उनका जो दूसरों का घर बनाते हैं। इलाके का सारा लेबर यहीं आकर मरता था। काम से मरने वाले, काम न मिलने की फ़िक़्र से मरने वाले, सभी लोग थे यहाँ। एक मुश्ताक़ हुआ करता था। अपने गाँव का आला बढ़ई। लकड़ी की मूर्ति बनाने पर आए तो आँखों से चन्दन सुँघा दे। हल्की-भारी हर लकड़ी से आदमी का जीवन आसान बनाने का हुनर उसे आता था। पर हुनर सब कुछ तो नहीं होता। परिवार को गाँव छोड़ काम के लिए शहर आया और जल्द ही जान गया कि नाम काम के आड़े आ रहा है। हफ़्तों काम न मिलता, मरता क्या न करता, मुश्ताक़ मोहन बन गया। कुछ दिन काम मिला और राज़ खुलने पर बेहिसाब मार। अपने बनाए तख़्त के पायों से पिटने के बाद कुछ फासें शरीर में जहाँ-तहाँ धँस गईं, जिन्होंने मोहन को वापस मुश्ताक़ बना दिया। कर्ज़दारों के घुड़की और घरवालों की भूख वापस गाँव न जाने देती। हारकर उसने मजदूर मंडी का रुख किया। जैसे बकरा खरीदने जाते हैं लोग, पसलियों को कोंचकर, रानें और कँधे ठोंककर करते हैं फैसला काम के मजदूर का। पर बकरे से उलट तुंदियल आदमी को यहाँ अलग हटा दिया जाता है। मुश्ताक़ भी उन्हीं में से एक था। नाम, कद-काठी से हारने के कुछ दिनों बाद मुश्ताक़ मर गया और परिवार को मरने के लिए छोड़ गया।
हाय लगी इस धरती को। झुग्गी मोहल्ला बर्बाद होने को आया। चेतना बिल्डर्स ने यह ज़मीन खरीद ली और बनने लगीं इमारतें। काम लायक लोगों की झुग्गियों को छोड़ सब तोड़ा गया। इस विध्वंस से पहले मुश्ताक़ का परिवार यहाँ मरने के लिए आ गया था। मुश्ताक़ से छोटा आसिफ बिजली का काम जानता था। मुश्ताक़ की बेटी, बहन और माँ को वह इसी काम से पालता था और भाँग छानता था, दिन में दो बार। बेटी मुस्कान सुबह-सुबह जाती थी स्कूल और घर पर बनाती थी गजरा। यह काम ही था उसके पालन का कारण; घरवाले देने से बचते थे। घरखर्च में देना भी ज़रूरी था।
यह मैदान के किनारे उभरती हुई खाई देख रहे हो दोस्तों, जो हर पल गहराती जाती है? इसके बड़े हिस्से में बँटे थे मकान, हवा, धूल, आसमान; एक टुकड़ा एक करोड़ का। संयोग देखिये कि मुस्कान की अध्यापिका इधर आ बसी। नए शरीर पर लदी अतिरेकी भौतिकताएँ और महँगी छत ज्ञात कराती हैं कि उसका पैसा खानदानी है। करुणा नाम था उसका, मन से अच्छी थी। उसूलों पर जहाँ आँच आए, टकराना ज़रूरी समझती थी। करुणा और उसका पति यहाँ साथ रहते थे। चार साल बीते थे आसिफ के परिवार को आए। भाई के उलट शहर उसके बदन को लगने लगा था। पहली पगार से उसने एक जोड़ी जूते और सफ़ारी सूट लिया जो उसने अक्सर साइट पर आए बड़े लोगों को पहने देखा था। जूते उसने मरते दम तक पहने, सूट साल भर में छोटा हो गया। मोटा पैसा कमाने वालों के साथ उठना-बैठना था, पर काम वही बिजली का।
बिजली की रफ़्तार से बढ़ रही थी मुस्कान भी। ख़ूबसूरती उसके कई हुनरों में से एक थी। मोहल्ले के मर्दों ने उसे घूर-घूरकर बड़ा किया। बताया उसको भी कि क्या कितना छोटा और बड़ा होना चाहिए। कभी-कभी शीशे में उन हिस्सों को देख ख़ुशी से शर्मा जाती थी। नौंवी में आई ही थी जब पहली बार करुणा को देखा। उसे अपनी दुनिया का केंद्र बना बैठी। मेहनती थी सो करुणा को भी पसंद थी। खुशमिजाज़ थीं दोनों पर मुस्कान कुछ अधिक; मैडम से अस्तित्व में आए सभी रिश्ते और लड़कों से मिलती तवज्जो उसके मूल कारण थे।
पर अवांछित तवज्जो मन दुखाती थी। कभी-कभी परेशान चेहरा ले स्कूल में आती और सिर मेज़ पर रख बैठ जाती। सिर्फ करुणा के पूछने पर बताती कि फलाँ आदम ी ने यह तंज कैसा, वैसे छेड़ा वगैरह। अब मैडम कहे क्या? क्या बता दे उसे कि यह दुष्चक्र मरते दम तक रुकता नहीं? मैडम अस्पष्ट स्वरों में उसे हिम्मत बँधाती है, सच्चाई की जगह उम्मीद परोसना उसे बेहतर लगा। समझाती है उससे ज़्यादा ख़ुद को कि यह सब जल्दी रुक जाएगा। ख़ुद पागल थी शायद या समझती थी उसको। शाम को कभी मिल जाती मैडम तो झुक के नमस्ते और भोली बातें करती थी। करती थी सहन बहुत कुछ पर कहते डरती थी। एक दिन कुछ मौतें हुईं।
डर के सिवान पर दम तोड़ती शर्म भी उन्हीं में से एक थी। मरी हुई मुस्कान अपनी काठ की कुर्सी पर बैठ गई। करुणा देखते ही भाँप गई कुछ ठीक नहीं। अनुभव है उसका; ऐसी दो-तीन मौतें उसने भी झेली हैं। पूछने पर मुस्कान रो देती है, खो देती है आपा; हिचकियों की झड़ी में आवाज़ टटोलती है, बोलती है मेरे चाचा मेरे साथ ग़लत हरक़त करते हैं। चल रहा है ऐसा महीनों से। शुरू में कुर्ती उठाकर देखते थे। सोते हुए इधर-उधर छूते थे। करते हैं घर का निर्वाह सो घरवाले मुझी पर अकड़ते हैं। आज नहाते हुए मुझे जकड़ लिया। जकड़ लिया करुणा ने फफकती मुस्कान को और क्रोध में आँसू झरने लगे। हाथ बढ़ा करुणा ने अपने और मुस्कान के आँसू पोंछे और कहा लिखने को अर्ज़ी प्रधानाचार्य के नाम। बदनामी के डर से प्रधानाचार्य ने कोई प्रतिक्रिया नहीं की। बोली, उसके घर में इकलौता कमाता है। जेल अगर गया तो घर क्या खाएगा? एक के जाने से परिवार मर जाएगा।
शिक्षिकाओं के समूह से समर्थन का निवेदन भी व्यर्थ गया। कहतीं कुछ कि वह लड़की तो वैसे भी बिगड़ी है, नाखून बढ़ाती है, चटख नेल-पेंट लगाती है। ऊँची कुर्ती पहनती है और अपने से बड़ी लड़कियों के बीच कुछ ज़्यादा ही चहकती है। माथा पीट लिया करुणा ने। अब आँसू बेबसी के थे। उसे दुनिया का दस्तूर मालूम था। वैसा ही हो रहा था जैसी आशा थी। आगे चल मुस्कान उसी घर में पलती गई और शादी करके चलती बनी। सालों-साल उखड़ते-जमते मकानों में यहाँ कई ज़िंदगियाँ गुज़रीं। इस मोहल्ले में हर टुकड़े पर लगातार कुछ न कुछ ग़लत हरकतें होती रहीं, जिसमें आधी ग़लतियाँ ग़लत झेलने भर की थीं। आसिफ अपनी मौत मरा और करुणा अपनी, पर अब भी ये सभी पीढ़ी दर पीढ़ी अपनी आदतों से ज़िंदा हैं, बस नाम बदल लेते हैं। यह झेलूपुर है, यहाँ किसी ने ग़लतियों से कुछ नहीं सीखा। रहने वाले समझते थे वे भविष्य के नुमाईंदे हैं, पर उन्हें मालूम न था कि वे अतीत की परछाइयाँ हैं, जिनका भविष्य लगातार गहरा रहा है। बताया था न? धरती को लगी है मुश्ताक़ों की हाय। चलिए, अगला स्टॉप हसरत की चाय।
अभी हम बात कर रहे थे आदतों की याद है? यहाँ सुदूर इलाकों से आए लोगों के कुछ छींटें शाम को घण्टा भर कुर्सी गरम करते थे। कीचड से रंग की चाय गटकना उनके गिने-चुने शौक़ों में शुमार था, बाक़ी सिर्फ हसरत थी। जब हसरतों का ढेर लग गया तो उन्होंने मन मारना अपनी आदत बना ली। सम्पन्नता की कमी इस क़दर हो चली कि जहाँ मन की कर सकते वहाँ भी आदतन मन मार लेते। सात-आठ जवान लड़कों का समूह, जो इसी सभ्यता की पैदाइश था, इस आदत का शिकार था। वे धीरे-धीरे समाज की परिपाटी और अपनी औकात से अवगत हो रहा था। हँसता था बाहर, भीतर रो रहा था। जिन घरों से ये लड़के आए थे, उनकी अपनी चुनौतियाँ थीं, पर सभी लगभग समान रूप से संपन्न भी थे।
ये लड़के रोज़ अपने सपनों की मौत के क़रीब आ रहे थे। जो चाहते थे वह दूर होता जा रहा था इसलिए उदास थे। आस थे अपने घर की, ज़िम्मेदारियों के पास थे सो उम्र के एक पड़ाव पर आकर बिछड़ने लगे। कब आठ से छः हुए, कब चार, पता ही नहीं चला। आखिरी दो, जाने वालों को बातों में स्थान देने लगे और हसरत-हैसियत का बाज़ार चाय के साथ खौलने लगता। जब आखिरी दो भी चल दिए छोड़ कर अपना घर, बर्बाद करने ज़िन्दगी अपनी शर्तों पर, मिलाया हाथ, लगे गले हसरत के, तब झलक दिखी अश्वत्थामा की उसके चेहरे पर।
छुट्टी-छिमाही आते थे दल के बिछड़े हुए लड़के। कोई गेस्टहाउस चला रहा है तो कोई ट्रैन। कोई दिमाग बंद कर टालू-मिक्चर तरीके से बना रहा है अमीरों को और अमीर। जब पहले नियम से बैठते थे तो पिघल के मिल जाते थे विभिन्न संसार; पढाई, पॉलिटिक्स, प्यार की बातें होतीं जिनमें झलकते थे सोच-संस्कार। महीनों बाद लगती बैठकों में औपचारिकताओं और उपलब्धियों का आधिपत्य था। रिश्तों के लरजते तारों से आनेवाली आत्मीयता की झंकार के बनिस्बत पनपता है राग घमंड का; चर्चा होती है ख़रीदी गाड़ी, ज़मीन, इज़्ज़त की और टंटा प्रोविडेंट फण्ड का।
साथियों, इन ग़ुरूर से लपलपाते लड़कों को ग़लत मत समझना, रखना सहानुभूति और करना मदद, सुनकर इनकी अहंकारी गाथाएँ और सामाजिक उपलब्धियाँ। क्योंकि शायद ऐसा हो कि जब ये उतार चुके होंगे आपके कानों पर अपना दर्प, तब शायद मुँह उठाये, डरता-सकुचाता एक मासूम सा लड़का पकड़ना चाहेगा आपकी ऊँगली। जंगली समाज से टक्कर लेने के लिए उस बच्चे को मर जाना पड़ा। जो पैदा हुआ उस बालक की खाद लगी मिट्टी से, वह राक्षस सामाजिक परिवेश में ख़ुद को साबित करने के लिए मरने-मारने पर उतारू है।
पता नहीं आप देख पा रहे हैं या नहीं, हसरत की दुकान पर जो चार लड़के बैठे हैं न? उनके नाम हैं सहगल, वर्मा, सिंह और सक्सैना। छुट्टी हैं न! दिवाली मनाने घर आए हैं। घर... भी बड़ी अजीब चीज़ होता है। लोगों को लगता है वे घर में रहते हैं, दरअसल घर उनमें रहता है। यह ज़मीन का वह टुकड़ा है जहाँ लौट के आने को जी करता है। बाक़ी सब सराय हैं और ये चारों वहीँ से आए हैं। सहगल की तीन दिन में फ्लाइट है फ्राँस की, दो साल बाद घर आया है, गया है वर्मा टीम मीटिंग अटेंड करने दुकान के पिछवाड़े और दहाड़ें मार-मारकर हँस रहे हैं सिंह और सक्सैना सहगल की ऊँटपटांग बातों पर कि तभी हसरत सालों पुराने दोस्तों को साथ बैठा देख मुस्कुराते हुए चाय लाता है।
जलाता है सहगल सिल्क कट पर्पल और बताता है एक डिब्बा साढ़े नौ सौ का आता है। बात ख़त्म करने के पहले वह डिब्बा बाक़ियों की ओर बढ़ाता है। सक्सैना के लेने, सिंह के मना कर देने पर डिब्बा वापस जैकेट की जेब में चला जाता है। फ्राँस की साफ़-सफाई, वर्क कल्चर, और शान्ति से ना जाने कब बातें मुड़ी बीते ज़माने की ओर, जब ये इन्हीं कुर्सियों पर घण्टों बैठकर दुनिया जहान की बातें किया करते थे। आज इनकी दुनिया कुछ मुट्ठी भर लोग रह गए हैं।
खुश हैं सभी कि मिले हैं सालों बाद पर कहीं न कहीं एक उदासी भी है। तोप के मुहाने पर खड़ा कर पूछने पर भी ये ठीक-ठीक नहीं बता पाएँगे अपनी उदासी का कारण। लगाएँगे 'शायद' हर वाक्य से पहले, अधपकी ज्ञान की हाँडी में परोसेंगे अपना सच; कहेंगे, यादें संभवतः इस उदासी का मूल कारण है। पेट और प्रतिष्ठा के लिए की जाने वाली नौकरी, या दोस्तों में पसरी अजनबीयत भी हो सकते हैं कुछ और कारण। बातें सुनिए इनकी और देखिये ध्यान से। ज़िक्र हो रहा है उन लड़कियों का जिन्हें ये बेइन्तिहाँ प्यार करते थे। ज़हन में नहीं आता यह ख़्याल कि ज़िक्र होना था इनके गाँव का, जिससे ये उतना ही प्यार करते थे जितनी नफरत भी। जीविका जुटाने के लिए शहर खदेड़े जाने की मजबूरियों का भी ज़िक्र होना था। कुछ देर में घरों से... Buy your copy of 'Apne Apne Darwaaze' here! https://shorturl.at/WgDV8