

‘पापी पेट ना होय तो किसी से भेंट ना होय।’
‘ज़िन्दगी में सब कुछ मिल सकता है, पर दो ऐसे पल नहीं मिल सकते जिसमें सब कुछ तुक से हो रहा हो।’ यह मैंने एक तुंदियल बुज़ुर्ग को एक जवान लौंडे से कहते हुए सुना था। बात में दम लगा। अपने जीवन से जोड़ कर देखा तो और भी ज़्यादा लगा। बाबा कस्बे के सबसे दबंग नौजवान थे; सभी बच्चों के आदर्श और बड़ों के ईर्ष्या के पात्र। घनी मूंछें, तगड़ा डील-डौल, और चाल ऐसी कि साथ चलने वाले दौड़ते से नज़र आते। अम्मा भी किसी मामले में उन्नीस नहीं थीं। बाबा चालीस कोस दूर से भगाकर लाए थे। सुन्दर इतनी कि औरतें जलन से मर जाती और आदमी वासना से। मोटी-मोटी आँखें, छोटा सा मुँह, बोली ऐसी जैसे किसी को फुसला रही हों। पर तुक और ईमान ज़्यादा समय टिक नहीं पाते।
बाबा की असमय मौत हो गई। कस्बे वालों का मत था कि यह हरक़त मस्जिद मोहल्ले में रहने वाले कालिये की है। बाबा का कालिये के साथ उठना बैठना ज़्यादा होने लगा था। दो चार बार घर भी आया। अम्मा को देखा तो और आने लगा। बताते थे पहले से ही तीन औरतें थीं और चौथी की फ़िराक़ में था। कालिया बाबा को एक दिन अपने साथ ले गया और फिर बाबा कभी नहीं आए। रह गए अम्मा, मैं और बड़ी बहन।
अम्मा बदल गई थी। जो पहले फुसलाती सी बोलती, अब उसका स्वर अष्टधातु के घंटे सा सुनाई देता; ऊँचा और साफ़। शायद ये मर्दों के साथ जीविका जुटाने के लिए घर से बाहर निकलने का नतीजा था। फिर एक दिन अम्मा भी लौटकर नहीं आई। साथ गए मर्द बताते थे कि रास्ते में एक ट्रक उन्हें सड़क पर कुछ ऐसे रौंदते हुए चला गया मानो अम्मा वहाँ थी ही नहीं। खून और माँस के छिटके टुकड़े ना दिखते तो लगता शायद बच निकली होंगी। मैं तो यह मानकर चलता हूँ कि अम्मा सच में बच निकली होंगी, वे किसी बेहतर जगह जीवन बसर कर रही होंगी और एक दिन में उनसे ज़रूर मिलूँगा।
कुछ सरफिरे लोगों ने सलाह दी कि पुलिस में जाएँ, ड्राइवर को पकड़वाएँ, तहक़ीक़ात हो और तब मुझे एहसास हुआ कि हमारी क़ौम निपट मूर्ख है। यह भी समझ आया कि मौके पर लड़ सको तो लड़ लो, अपना हक़ माँग लो, बाद में सिर्फ पछतावा और समझौता होता है। और कौन सी नई बात है अपने लोगों के कुचले जाने की। आदमी हमारी सच्चाई का पता लगते ही घृणा करने लगता है, हम लोगों से अपना दामन साफ़ रखना चाहता है, और मौके-बेमौके मारने में बिलकुल नहीं हिचकिचाता।
हर समाज की अपनी समस्याएँ होती हैं, जिनमें से ज़्यादातर ख़ुद की बनाई होती हैं। इनके उपाय भी समाज निर्धारित करता है जो अधिकतर कारगर नहीं होते। बाबा के जाने के बाद अम्मा एक बात को स्पष्ट रूप देने के लिए एक ही साँस में बार-बार बोलती। जहाँ एक 'हाँ' से काम चल सकता था, वहाँ चार 'हाँ' बोलती; शायद उसकी एक बार कही गई बात की अहमियत कम आँकी जाती होगी।
जब से सोचने के क़ाबिल हुआ, हमेशा ख़ुद को अम्मा की परेशानियों का कारण माना। कस्बे के बाक़ी बच्चों से छोटे हाथ-पैर थे और पेट हलवाई जैसा; बिलकुल कालिये की तरह। मेरे नैन-नक्श, हाव-भाव कस्बे वालों को कालिया की याद दिलाते। मेरा अस्तित्व मेरी अम्मा के चरित्र पर रोज़ सैकड़ों प्रश्नचिन्ह लगाता। अम्मा के जाने के बाद बड़ी बहन बहुत रोया करती। कई सालों तक वह माँ को भुला ना सकी। एक दिन मुझसे कहती कि जब तू अम्मा के पेट और मैं उनके सामने नींद में थी, मैंने उनका माफ़ीनामा सुना था। अम्मा तुझे इस दुनिया में लाने के लिए माफ़ी माँग रही थी। मैंने कुछ नहीं कहा, क्योंकि अम्मा की एक बात को चार बार बोलने की आदत का एक भिन्न रूप मेरे अंदर भी था। वे एक बात को चार बार बोलती, मैं एक बात को चार सौ बार सुनता; एक बार कहे जाने पर, तीन सौ निन्यानवे बार अपने दिमाग में, ज़िन्दगी के अलग-अलग पड़ाव पर।
पेट की वजह से बड़ी ने एक दिन काफ़ी विनम्रता से मुझे अपने से अलग कर दिया। बोली, "लाला (वह मुझे प्यार से लाला बुलाती थी, ज़माना कटाक्ष में) में तुझे अब ना खिला पाऊँगी।" मुझे और सारे कस्बे को पता था कि बड़ी का एक मर्द के साथ प्रेम चल रहा है। वह शनि मंदिर के पास एक फटीचर घर में रहता था। बाबा, अम्मा और अब बड़ी के घट रहे अतुकांत और आपत्तिजनक जीवन के बाद मेरा कस्बे में रहना लगभग नामुमकिन सा ही था। छोटे से छोटे जीव की भी एक नाक होती है, जिसे वह अपनी बिरादरी में सबसे ऊँचा रखना चाहता है। बड़ी का प्रेम-प्रसंग बिरादरी में फैलने के बाद मैं अपने आप खानदान की नाक का अघोषित संरक्षक नियुक्त हो गया। नियुक्ति के तुरंत बाद मैंने खानदान की प्रतिष्ठा के हित में एक अभूतपूर्व फैसला लिया।
‘सुखिया सब संसार है, खावे अरु सोवे,
दुखिया दास कबीर है, जागे अरु रोवे।’
हमारा क़स्बा बहुत विस्तृत क्षेत्र में फैला था। अनेकानेक बिरादरी थीं, जिसमें हमारी बिरादरी को सबसे हीन और घृणात्मक समझा जाता था। हम किसी के घर खाना लेने चले जाएँ तो दुत्कार कर भगाए जाने के उपरान्त कई बार घर साबुन या फिनाइल से धोया जाता। किसी को अनजाने में छू लें तो वह जान से मारने पर आमादा हो जाता। अपने कस्बे में हमारा तबका सबसे नीचे था पर हमारी बिरादरी में भी अलग-अलग तबके थे। मैंने इन सभी तबकों और बिरादरियों को त्यागने का फैसला किया; गाँव छोड़ शहर आने का, ऊँची नाक और नीची सोच के सिद्धान्तों से बहुत दूर।
बड़ी ने भारी मन से मुझे विदा किया, और मुझसे वचन लिया कि मैं जीवन में कभी किसी की भलाई ना करूँ। उसने यह भी कहा कि मैं परिवार की नाक का ख्याल रखूँ, जो मेरे विचार में सभी परिवारजन अपने-अपने हिस्से की कटवा चुके थे और अब आधी-चौथाई जितनी भी बची थी, उसकी ज़िम्मेदारी मेरे ऊपर थी।
‘जहाँ मेरा ह्रदय है, वहीँ मेरा भाग्य है।’
हमारे कस्बे से आज तक कोई शहर नहीं गया था इसलिए मेरा अनुभव पूरी तरह ताज़ा था। कस्बे में मेरे सवालों और जवाबों का संतुलन बना रहता था जो शहर आते ही गड़बड़ाने लगा। सवालों की फेहरिस्त एकदम से लम्बी होने लगी, मसलन, जब शहर में आदमी इतने चकाचक कपड़े पहनता है, तो मेरी बिरादरी के लोग नंगे क्यों घूमते हैं? जहाँ नज़र घुमाओ वहाँ सैकड़ों दुकानें, खोमचे, और होटल हैं तो हम लोग भूखे क्यों मरते हैं? जब शहर में हज़ारों बच्चे कई किलो किताबें लेकर स्कूल, कॉलेज जाते हैं तब भी यह दुनिया इतनी बेवक़ूफ़ क्यों है? जब शहर में इतनी ऊँची-ऊँची इमारतें हैं जो सालों से खाली पड़ी हैं, तो मेरे कस्बे के लोग बेघर क्यों हैं? मुझे शहर पहुँचने में रात हो गई थी, रहने का ठिकाना ना था। सो एक गली में जाकर इन्हीं सवालों के जवाब खोजते-खोजते सो गया।
अगले दिन सुबह जल्दी उठा और जीविका की तलाश में इधर-उधर भटकने लगा। सच्चाई पता चलते ही काफी जगहों से दुम दबाकर भागना पड़ता, पर अंत में एक होटल में बात जम गई। खूब दौड़-धूप करने के बाद खाना नसीब होता। यह सिलसिला काफ़ी महीनों तक चला, जीवन धीरे-धीरे पटरी पर आने लगा। फिर एक दिन होटल की सड़क पार करते वक़्त एक लॉरी से भिड़ंत होते-होते बची। मैं झटके से पीछे हटा तो संतुलन बिगड़ने के कारण सड़क के किनारे एक बड़े गड्ढे में जा गिरा। मैं दर्द के मारे बिलबिलाता रहा, मदद के लिए पुकारता रहा, पर कोई नहीं आया। तीन दिन तक कोई नहीं आया। चौथे दिन मैं ख़ुद बाहर निकला। महसूस हुआ कि मैं अपनी बाईं टाँग में हलचल और समाज के प्रति रहा-सहा करुण भाव खो चुका था। मन में लगातार चल रहा था, “यह शहर जिसका भी होगा मेरा नहीं है। यहाँ ना पुलिस अपनी, ना कोर्ट-कचहरी और ना ही संसद में बैठे लोग अपने। यह कुछ चुनिंदा लोगों द्वारा चलाई जा रही दुनिया है, जिसमें हम खाने की तलाश में सिर्फ यहाँ से वहाँ भटक रहे हैं और बदले में गालियाँ और झूठन खा रहे हैं। वहीँ कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्होंने किराए पर हाथ और पैर ले रखे हैं और ख़ुद सिर्फ पेट और चूतड़ लिए पैदा हुए हैं।“
‘हाथी की लीद सरीखे; ना लीपने के ना पोतने के।’
रास्ते के इस तरफ जो पहला घर मिला मैं उसमें घुस गया। अब आप सोचते होंगे कि मैं घुसा कैसे। इस बारे में हमारे कस्बे में एक कहावत मशहूर है: ‘ताले होम्त सज्जन कूँ, चोर, सर्प, मूसा कूँ नाही।’ अंदर देखा, चार कमरों का आलीशान घर, बड़े-बड़े सोफे, टीवी, मेज व झूला। सोचा यहाँ तो पूरा खानदान रहता होगा। फिर नज़र पड़ी... Buy your copy of 'Apne Apne Darwaaze' here! https://shorturl.at/WgDV8